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Showing posts from October, 2017

मेरे पितामह की वीरगति

वो रात बड़ी काली थी, बढ़ती रात की कालिमा के साथ उनकी वेदना भी बढ़ती जा रही थी। मरणपीड़ा की असहनीय और मर्मान्तक पीड़ा की झलक उनके चेहरे पर आती और चली जाती,इसी के साथ दर्द को पीने की उनकी कोशिशें भी असफल सिद्ध हो जातीं। उस अवस्था में भी उनकी आवाज़ में एक खनक थी, और वो पूरी तरह स्पष्ट थी। पिछले सत्रह दिनों से वे मृत्यु से लगातार युद्ध लड़ रहे थे,गजब के योद्धा थे वो, उनकी वीरता अब पराकाष्ठा पर थी। मौत से लड़ने का कौशल क्या होता है, पहली बार ये मैंने उनसे जाना,उनके इसी साहस से मैंने महसूस किया, कि मरना भी एक कला है।      आदमी सारा जीवन खर्च कर देता है अपनी मृत्यु कमाने में, कहीं मैंने ऐसा पढ़ा था,सारी ज़िन्दगी वो जैसा आचरण करता है जीवन के सार्थक अंतिम कुछ पल ही उसकी सार्थक परिणीति होते हैं। जैसा जिसका व्यव्हार, वैसी उसकी मृत्यु का परिणाम, जैसे मरने वाला यदि तामसी प्रवृत्ति का है तो,वो मरते समय बेहोश हो जाता है, क्यूंकि उसका सारा जीवन खुराफात करने में ही व्यर्थ हो जाता है और अंतिम पलों के एहसास से ही वो बेहोश हो जाता है। उनकी मृत्यु की घटना  भी उ...

किसान और लेखक के बीच का अन्तर

एक लेखक और किसान में ज्यादा अंतर नहीं होता है, नए सृजन की सम्भावनायें दोनों में हैं , यदि लेखक, अपनी लेखनी के जरिये लोगों में नये विचारों के बीज बोता है, तो किसान भी अपने हल से जमीन को जोतकर अपने फसलों की कथा लिखता है। फर्क सिर्फ इतना सा है कि, लेखक पढ़ा लिखा होता है, तो किसान अनपढ़,जाहिल और गँवार होता है, अब तो नए युग का किसान भी साक्षर होने लगा है। लेखक जहाँ अपने श्रम की पूरी कीमत पाता है, देर से ही सही, जबकि किसान का परिश्रम यदाकदा बेकार भी चला जाता है, लेकिन दोनों ही अपने अपने कर्म भूमि के तल पर विशेषज्ञ होते हैं। दोनों ही का कार्य पारमार्थिक होता है ,यदि लेखक अपने विचारों से लोगों में जागरण और उत्थान का भाव उत्पन्न करता है ,तो वहीं  किसान अपने श्रम से उत्पन्न की हुई फसल से लोगों की भूख मिटाता है। हैं तो दोनों परिश्रमी, दोनों ही कर्मठ हैं, दोनों में ज्वाला है, दोनों ऊर्जावान तो इतने हैं, कि दुसरों में ऊर्जा का संचार करते हैं, और समाज को जरुरत भी दोनों की है। एक लोगों की भूख को मिटाकर उनमें सोचने की क्षमता पैदा करता है, दूसरा उनकी सोच ...

अशुध्द कुआँ

लंच का समय। ...... खाने के बाद तो अक्सर गपबाजी होती ही रहती है। सब बारी बारी से अपना किस्सा सुना रहे थे, सभाजीत उस्ताद ने भी अपना एक किस्सा सुनाया, कहानी ऐसी थी, कि उनके रिश्तेदारों में उनके कोई फूफा लगते थे, जो राजगिरी  का काम करते थे, राजगिरी का मतलब तो सब जानते हैं, भाई, वही राजमिस्त्री का जो ईटों की जोड़ाई का काम करते हैं । किसी ब्राम्हण के यहाँ पर उनका काम लगा हुआ था, कुएं की मुंडेर बन रही थी। वो भी चुपचाप अपना काम कर रहे थे, तभी उस ब्राम्हण परिवार की एक नई नवेली बहू कुएं की मुंडेर के पास आकर खड़ी हो गयी, लम्बा सा घूँघट निकाले........  वे सारा सबब जानते थे कि, वो बहू  वहां क्यों  खड़ी थी ! फिर भी वो चुपचाप सिर झुकाये अपना काम करते रहे। दरअसल ,वे हरिजन थे और उस दुल्हन के दिमाग में बात आ गयी कि ,एक हरिजन की मौजूदगी में वह कुएं से पानी कैसे काढ़े,पानी अपवित्र जो हो जाता,काफी देर हो गयी, न तो वो कुछ बोल रही थी,और न ही वो वहां से हट रहे थे।        अचानक घर के किसी पुरुष  सदस्य की निगाह उस जगह पड़ी, तो उसने दुल्हन से वहां इतनी देर तक ख...

शम्बूक

रामराज्य के युग की कथा है, एक शूद्र अल्पविकसित ज्ञान के साथ तपस्या में लीन था, वह सिर लटका कर,पैरों को ऊपर डाल में फंसाये, एक वृक्ष पर तपस्यारत था, उसकी इस तपस्या से एक ब्राम्हण बालक मर गया, उस ब्राम्हण बालक का पिता उसकी मृत शरीर को लेकर राजा राम की राज्यसभा में पहुंचा और दहाड़ें मार कर रोने लगा। राजा राम ने उससे प्रश्न किया ," क्यों रो रहे हो?".... ब्राम्हण ने उत्तर दिया ," मेरा बालक मर गया,इसलिए रो रहा हूँ, और इस बालक की मृत्यु का कारण आप हो " राजा राम उसकी बात सुनकर स्तब्ध रह गए। उन्होंने उस ब्राम्हण से पूरा वृत्तांत जानना चाहा। उस ब्राम्हण ने उत्तर दिया,"आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है, उसकी तपस्या के फल स्वरुप मेरा बालक मर गया।" राजा राम ने उस शूद्र की तलाश शुरू कर दी,और उस जगह पहुँच गए जहाँ वह शूद्र तपस्यारत था।      राजा राम ने पूछा, " क्या कर रहे हो? ''  शम्बूक ने उत्तर दिया ," राजा राम आपका कल्याण हो! मैं शूद्र हूँ, और सदेह स्वर्ग जाना चाहता हूँ ,अर्थात अपने शरीर के रहते अपना स्वरुप जानना चाहता हूँ ,इसलिए यह प्रयोजन कर...

ब्राम्हण,गाय,और केतकी की कथा

कबीर पंथ की एक पुस्तक का वृत्तांत जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि,इतना बड़ा सत्य आज भी हिन्दुओं द्वारा अनदेखा क्यों किया गया था, कथा बड़ी पौराणिक लगती है,पर है रोचक और मज़ेदार,उस पुस्तक के अनुसार यदि मनन किया जाये तो पता चलता है कि,हिंदू वैदिक सभ्यता का इतना नुकसान क्यों हुआ,ये नुकसान इतना व्यापक था जितना बाहरी आक्रमणकारियों ने हिन्दू सभ्यता को नुकसान नहीं पहुँचाया उससे ज्यादा ब्राह्मणों ने हिंदू सभ्यता का नाश कर दिया,इस वर्ग ने अपने निजी लाभ के लिए धर्म के पौराणिक तथ्यों के अर्थ का अनर्थ करके उसे तहस नहस करके रख दिया,यही सत्य है जिसे पूरे हिंदू जनभावना को समझना चाहिए।          कथा इस प्रकार है,जब समुद्रमंथन हुआ तो उस मंथन में और चीज़ों के साथ निकले वेद,तेज और हलाहल विष,जो क्रमशः ब्रम्हा,विष्णु और महेश ने आपस में बाँट ली,ब्रम्हा को वेद,विष्णु को तेज यानि अमृत और महेश को हलाहल प्राप्त हुआ वे उन वस्तुओं को लेकर अपनी माँ अष्टांगी के पास गए तो माँ ने तीनो को उन चीज़ों को अपने अपने पास रखने को कहा,साथ ही फिर से समुद्र मथने का आदेश दिया,जिसमे अष्टांगी ने अपन...

मृत्यु:जीवन की नयी गाथा

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वो कमरा आश्रम के पिछले हिस्से की गली में अवस्थित था,वो आश्रम के सभी कमरों से ज्यादा गुलज़ार और रौनक से लबरेज रहा करता था, उसमे जीवनोपयोगी सारी वस्तुएं मौजूद रहा करती थीं ,जो आश्रम के अन्य कमरों में तकरीबन कम ही पायी जाती थीं। हीटर,गीजर भंडारी के आले में सजी हुयी गिलासें,थालियाँ,प्रसाद का डिब्बा,दवाइओं के डिब्बे,तम्बाकू की डिबिया,कटोरे अादि वस्तुएं अपनी अपनी जगह पर करीने से रखी होती थीं. किसी भी वस्तु का बेतरतीब या मनमाने ढंग से रखा जाना उस कमरे के स्वामी को बिलकुल नागवार लगता था। जो व्यक्ति उस आज्ञा का उल्लंघन करता था वो गालियां सुनता था। एक ओर पलंग पर तरतीब से गद्दा,गद्दे पर कम्बल,चादर इत्यादि ढंग से फैलाये गए होते थे,सिरहाने पर तकिया जिसके गिलाफों में भक्तों और अनुयायियों द्वारा चढ़ाई गयी निधि,कभी तकिये के नीचे या उसके आस पास अस्त व्यस्त रूप से रखे गए रूपये अक्सर नुमायां होते थे। इन रुपयों के प्रति उस कमरे के स्वामी बेपरवाह रहा करते थे ,खाने पीने की वस्तुएं जिसमे नमकीन ,बिस्कुट ,भुना चना ,भुनी हुयी मूँगफली ,साबुन ,तेल इत्यादि चीज़ें बड़े बड़े थैलों में डालकर पलंग के नीचे या ऊपर टांड पर र...

दीपावली एवं हिंदू नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें

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आप सभी पाठकों को,समग्र विश्व को दीपावली एवं हिंदू नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें और अभिनन्दन के साथ मेरे प्रणाम स्वीकार हों।  महानगरों एवं शहरों की दिवाली ग्रामीण परिवेश की दीपावली से सर्वथा भिन्न एवं व्यावहारिक सी लगती है। गांव देहात की दीपावली मनाने का सिलसिला शुरू होता है दीपदान से, इस दिन सारी सम्पत्ति,उपयोगी हों या अनुपयोगी,ज़रूरी हो या व्यर्थ सबकी समान इज़्ज़त होती है,चाहे घर हो या खेत सब जगह दीप प्रज्वलित करके सम्मान प्रदर्शित किया जाता है,यहाँ तक कि,घूर पर जहाँ कूड़ा करकट फेंका जाता है वहां भी दीपक प्रज्वलित करने की परंपरा होती है।  दीप प्रज्वलित करने की प्रथा प्रतीकात्मक होती है,यह प्रतीक है उस विशाल घने फैले हुए अँधेरे के प्रति एक दीप की प्रकाश को फ़ैलाने की कोशिश का,जो आम आदमी के जीवन में प्रतिदिन नयी नयी चुनौतियों एवं कठिनाईयों के ,जो कि, अँधेरे का प्रतीक हैं , अपनी मेधा और ज्ञान के दीपक के प्रकाश की  शक्ति से दूर करने का एक प्रयास है।  आप भी अपनी अंधकार एवं संकटरूपी चुनौतियों का,नित नए दीपक जला कर उनके अँधेरों को दूर करने का प्रयास...

भारतीय अर्थव्यवस्था का अर्धसत्य

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भारतीय संविधान का मूल सिद्धांत,नागरिकों द्वारा,नागरिकों के हित में,नागरिकों का, संविधान के रूप में प्रतिपादित संविधान है। इस संविधान के तहत हर नागरिक को समान सुविधाएं,समान व्यवस्था,समान दृष्टिकोण एवं समान स्वतंत्रता हासिल है। फिर भी,भारतीय समाज वर्गों के रूप में बंट गया हैं,जिसमे हर वर्ग की अलग अलग सुविधाएं,अलगअलग व्यवस्था,अलग अलग दृष्टिकोण का माहौल व्याप्त हो गया है।आज जब भारत तेजी से शिक्षा,रक्षा,विज्ञान,चिकित्सा,अनुसन्धान,एवं तकनीक के क्षेत्र में एक नया सोपान हासिल कर रहा है एवं एक मज़बूत अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर है ,ऐसे समय में भारतीय कृषि जगत,जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है,उपेक्षित क्यों महसूस कर रही है। भारतीय किसान की दशा बद से बदतर हालत में क्यों होते जा रही है।वो किसान जो अन्नदाता के रूप में जाना जाता है,उसकी खुद की हालत कुपोषित जैसी क्यों है,क्यों हम उसे पलायित होने से रोक नहीं पा रहे,उसकी आत्महत्याओं का दौर क्यूँ थम नहीं पा रहा है। ये वर्ग जिसके कंधो पर देश की मूलभूत ज़िम्मेदारी भोजन संबंधी प्रबंधन की है,वही वर्ग भोजन की थाली से वंचित ...

हिंदी साहित्य के धूमकेतु :फणीश्वर नाथ रेणु

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हिंदी साहित्य के धूमकेतु :फणीश्वर नाथ रेणु मेरी स्मृतियों में अपने पाठ्यक्रम की कई कहानियों एवं उनके लेखकों का समावेश है,उन सबका हिंदी साहित्य में अपना अपना  एक अलग स्थान एवं योगदान है,परन्तु जिस लेखक का मैं उल्लेख कर रहा हूँ ,उनका नाम है, फणीश्वर नाथ रेणु ,वे अपनी कथाकहानियों के माध्यम से भारतीय ग्रामीण परिवेश की समस्याओं का एक मूक दर्शक के बजाय, एक भोक्ता के रूप में यथार्थपूर्ण वर्णन करते हैं। उनकी कहानियां भारतीय समाज के साथ एक आत्मीयता एवं तादात्म्य स्थापित करती हैं। उनमें संवेदना एवं निरीक्षण की अपूर्व शक्ति है,वो अपनी कहानियों में आंचलिकता का पुट देते है,एवं अपनी किस्सागोई को एक कुशल शिल्पकार की भाँति तराशकर उसे एक नई दिशा,एक नया संस्कार देते हैं, कहानी के वातावरण को वास्तविकता का रूप देने में वे सिद्धहस्त हैं। वे अपनी कहानियों में पात्रों को,उसकी घटनाओं और भावचित्रों के बाहुल्य एवं बिखराव होने के बावजूद,अत्यंत ही सधे ढंग से एक विशेष बिंदु अथवा मुहूर्त की ओर मोड़ने में माहिर है,जिसके फलस्वरूप कहानी का प्रभाव सघन,मार्मिक,एवं स्थायी हो उठता...

धर्म का मर्म:धारणा,विज्ञान,आस्था या कुछ और....?

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ज्वलंत प्रश्न है,धर्म क्या है? धर्म की बात की जाये तो हिंदू मान्यता धर्म विषयक ये है,कि जो चित्तवृत्ति नियमित रुप से धारण की  जाये वो विश्वास ही,वो विशेष चित्तवृत्ति ही धर्म है। ठीक है,जिस विश्वास को हम प्रतिदिन के दैनिक जीवन में पूरी ईमानदारी से धारण करते हैं,वो विश्वास ही धर्म है। यही विश्वास, हिंदू धारणा है,जो की यदि प्रतिदिन दोहराते रहें तो आस्था का केंद्र बन जाता है। अक्सर ये व्यवस्था अनुवांशिक तौर तरीके से पीढ़ी दर पीढ़ी नीचे की पीढ़ियों में प्रसारित होती रहती है। अब प्रश्न ये आता है कि,क्या धारणा बदलती रहनी चाहिए ,तो हाँ धारणा को निश्चित रूप से बदलते समय,बदलते विज्ञान,बदलते परिवेश के अनुसार उस विशेष परिस्थिति के साथ पूर्ण रूप से न सही,पर इसके परिष्कृत रूप को बदलने और अंगीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। आखिरकार धारणा ही आगे बढ़कर मज़बूती से,ठोस रूप से भक्ति का रूप होती है,ये भक्ति कुछ अलग कर्मकांड न होकर सतत रूप से जब ठोस हो जाती है,एकाग्र चित्त भाव में आ जाती है,तो उसी एकाग्र चित्तवृत्ति को भक्ति कहते हैं। यदि ,धारणाएँ न बदलें तो इससे वृत्तियों के अप...

धर्म एवं राजनीति:एक दूसरे के पूरक

धर्म एक दीर्धकालिक राजनीति है ,और राजनीति अल्पकालिक धर्म है इस सिद्धांत को प्रधानमंत्री नरेन्द्रभाई मोदी ने बखूबी आत्मसात कर लिया है,स्वच्छता एवं शुचिता सम्बन्धी अभियान चलाकर भारतीय जनमानस के अंतर्मन में एक नयी स्वच्छ सामाजिक विचारधारा,स्वच्छ परिवेश ,एवं दृढ़ भारतीय राजनैतिक इच्छाशक्ति की पहल की है,यह तो खैर उन्होंने अपने तरीके से समाज को एक नया रूप देने की कोशिश की है,जो वाकई प्रशंसनीय पहल है,प्रशंसा के पात्र वो इसलिए भी हैं,कि महात्मा गाँधी एवं सरदार वल्लभभाई पटेल  ने आधुनिक भारत का जो सपना देखा था, उसे वो साकार करने का प्रयत्न कर रहे हैं,पर सवा सौ करोड़ आबादी वाले इस विशाल भारतीय जनमानस की इन सारी उपयोगिताओं पर अब तक निगाह क्यों नहीं पड़ी या उन्होंने इन बातों को अब तक नज़रअंदाज़ क्यों किया ये भी एक यक्षप्रश्न उठ रहा है,क्या हमारा अपना कर्त्तव्य निभाना भी टालमटोल वाली प्रवृति के बलि चढ़ गया,या चलता है वाली संस्कृति इस कर्त्तव्य को निभाने की राह में रोड़ा बन गई है,आज़ादी के इतने सालों के बीतने के बाद भी हम अपने कर्तव्यों के प्रति विमुख क्यों हैं,हम क्यों हर ज़िम्म...

भारतीय होने के अपने मायने

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ये उन दिनों की बात है जब पूरी  मुंबई सन १९९३ के दंगो की विभीषिका झेल रहा था,और देश के कई और हिस्सों में भी इंसानियत को शर्मसार करने की घटनायें घटित हो रही थी,मैं किशोरवय था और कॉलेज का छात्र हुआ करता था, जिस जगह हमारी रिहायश हुआ करती थी वह जगह अधिकांशतः या यूँ कहें की पूर्णतः मुस्लिम बस्ती थी, मैं भी उस जगह दंगो की गिरफ्त में आ गया था चूँकि समय रहते मुझे वह जगह छोड़ने का मौका नहीं मिल पाया था,सारी बस्ती दंगो की चपेट में आ गयी थी, वहशियत का ,एवं अफवाहों का बाजार गर्म हो गया था,चूँकि मैं अपनी बस्ती के अपने मोहल्ले में जो की, सोलह कमरों की चॉल हुआ करती थी, उनमें अकेला हिंदू था हालाँकि मैं भी भीतर से डर  रहा था फिर भी मैं अपने धैर्य को बरक़रार रखे हुए था कि अचानक पुलिस की गाड़ियों की आवाजों से माहौल कर्कश एवं तनावग्रशित  हो गया,और पुलिस की साईरन बजाती हुई गाड़ियों से अनॉउंस होने लगा की पूरी बस्ती में कर्फ्यू  लग गया है और कोई भी अपने घर से बाहर न निकले नहीं तो देखते ही गोली मार दी जायेगी,उस समय की याद आते ही आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं,फ़िज़ा मे...

Being religious

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पिछली कई सदियों से विदेशी विद्वानों,व्यापारियों,राजनीतिज्ञों,आक्रमणकारियों का निरंतर भारत में आगमन हुआ और लगभग सभी ने अपने संस्मरणों में या अपनी आत्मकथाओं में भारत में उस मौजूदा समय में लोगों द्वारा समय के अनुरूप प्रचलित धर्मों का उल्लेख ही नहीं अपितु उस मौजूदा समय के शासकों द्वारा विभिन्न धर्मों  के प्रोत्साहन दिए जाने का भी उल्लेख अपने द्वारा रचित लेखों में स्पष्ट किया है तक़रीबन सभी ने भारतीय जनमानस की अवधारणा को यथोचित उकेरा है एवं उसकी प्रशंसा की है क्यूंकि इस सन्दर्भ में धर्म की विवेचना तो अपनी जगह है उस धर्म को माननेवाले उसके अनुयायियों की महानता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है,उनकी सहिष्णुता एवं अपने द्वारा भिन्न धर्मों के विचारों को  अवशोषित करने की क्षमता को नगण्य दृष्टि से देखना उस जनमानष का अपमान होगा इस जनमानस ने अपने ऊपर विदेशी आक्रमण को ,अपने ऊपर हुए ज़ुल्मों को,अपने शोषण को तरजीह न देकर अपने अंदर उनकी अच्छाइयों एवं बुराईयों को भली भांति समाहित किया है  ये ठीक रज्जब साहब की उन पंक्तियों की याद दिलाता है जिसमे उन्हों ने कहा है ...

My First step towards truth

The First day when I visited to my hermitage was a phenomenon of  confusion for me, as I was really unable to understand the uniqueness and importance of the place, and I was taking it lightly without knowing the fact that, the day was going to be a turning point for my forthcoming future. the only thing which I cannot forget was the first appearance of my satguru maharaj in his youth days in the picture which was placed over there which effected me so much that for a moment I was compelled to imagine a personality like him who seemed to be so beautiful and serene with so much sacredness and calmness can  ever exist on the planet earth who is so much incomparable. The very next thought which stroke in my mind was if me myself as a masculine gender is so fascinated by him then what will happen with the feminine who come there to visit him. Truly confessing it was a unique experience for me nevertheless to say that it was going to be the ultimate experi...