ब्राम्हण,गाय,और केतकी की कथा
कबीर पंथ की एक पुस्तक का वृत्तांत जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि,इतना बड़ा सत्य आज भी हिन्दुओं द्वारा अनदेखा क्यों किया गया था, कथा बड़ी पौराणिक लगती है,पर है रोचक और मज़ेदार,उस पुस्तक के अनुसार यदि मनन किया जाये तो पता चलता है कि,हिंदू वैदिक सभ्यता का इतना नुकसान क्यों हुआ,ये नुकसान इतना व्यापक था जितना बाहरी आक्रमणकारियों ने हिन्दू सभ्यता को नुकसान नहीं पहुँचाया उससे ज्यादा ब्राह्मणों ने हिंदू सभ्यता का नाश कर दिया,इस वर्ग ने अपने निजी लाभ के लिए धर्म के पौराणिक तथ्यों के अर्थ का अनर्थ करके उसे तहस नहस करके रख दिया,यही सत्य है जिसे पूरे हिंदू जनभावना को समझना चाहिए।
कथा इस प्रकार है,जब समुद्रमंथन हुआ तो उस मंथन में और चीज़ों के साथ निकले वेद,तेज और हलाहल विष,जो क्रमशः ब्रम्हा,विष्णु और महेश ने आपस में बाँट ली,ब्रम्हा को वेद,विष्णु को तेज यानि अमृत और महेश को हलाहल प्राप्त हुआ वे उन वस्तुओं को लेकर अपनी माँ अष्टांगी के पास गए तो माँ ने तीनो को उन चीज़ों को अपने अपने पास रखने को कहा,साथ ही फिर से समुद्र मथने का आदेश दिया,जिसमे अष्टांगी ने अपने अंश को मिला कर तीन कन्यायें पैदा की,फिर से समुद्र मंथन हुआ तो तीन कन्याएं उस में से प्राप्त हुईं,जिसमे ब्रम्हा को सावित्री,विष्णु को लक्ष्मी और शिव को पार्वती की प्राप्ति हुई,तीनो भाइयों ने काम विषय के वशीभूत होकर देव और दैत्य पैदा किये,फिर समुद्र मंथन हुआ तो चौदह रत्नो की प्राप्ति हुई जो तीनो ने आपस में बाँट ली,तीनो भाइयों ने अब सृष्टि की रचना आरम्भ कर दी,और सृष्टि का विकास प्रारंभ हो गया। अष्टांगी ने अण्डज खनि की उत्पति अपने अंश से की,पिण्डज खानि को ब्रम्हा ने उत्पन्न किया ऊष्मज खानि को विष्णु ने तो स्थावर खानि शिव ने उत्पन्न की,और सृष्टि का विकास किया। इन सबने मिलकर चौरासी लाख योनियों की रचना की और उनके स्वभाव के अनुसार जल और थल का निर्माण किया,जिसमे स्थावर खानि एक तत्त्व,और ऊष्मज खानि की दो तत्वों से रचना हुई,अण्डज खानि की तीन तत्वऔर पिण्डज खानि की चार तत्वोँ से रचना हुई,पांचवी खानि पांच तत्वों से बनी जो मनुष्य योनि के रूप में हुई,तो इस तरह सृष्टि की रचना हुई, जिसमे मनुष्य ही सिर्फ ऐसी खानि थी, जो पांच तत्व और तीन गुणों से मिलकर बनी,जो ज्ञान प्रधान और सर्वश्रेष्ठ थी। सृष्टि की रचना का कार्य यहाँ तक तो निर्बाध चला परन्तु आगे अवरुद्ध हो गया क्यूंकि अब तीनों मिलकर अपने पिता निरंजन की खोज में लग गए,इसके पश्चात् ब्रम्हा वेदों का अध्ययन करने लगे जिसके कारण उन्हें अपने पिता निरंजन के प्रति अनुराग पैदा हो गया,क्यूंकि वेद कहता है कि, एक पुरुष है,निराकार है,उसका कोई रूप नहीं है।
वह निरंजन जो एक पुरुष है,निराकार है,और उसका कोई रूप नहीं है,वह शून्य में भी ज्योति दिखाता है,यानि प्रकाश दिखाता है पर उसका शरीर दिखाई नहीं पड़ता,उसका शीश स्वर्ग है और पांव पाताल है। इस वेद मत को जानकर ब्रम्हा अति प्रसन्न हो गया। ब्रम्हा ने विष्णु को बताया कि, वेद ने उसे आदिपुरुष को दिखा दिया,फिर उसने शिव को बताया कि वेद पढ़ने से पता चलता है कि,पुरुष तो एक ही है और वही सबका स्वामी है,ये तो वेदों ने बता दिया साथ ही साथ ये भी कह दिया कि,हमने भी उसका रहस्य नहीं पाया है। ब्रम्हा ने अपनी बात को अपनी माँ अष्टांगी को भी बताई कि,वेदों का ऐसा मत है,तो आप हमें बताइये के वह पुरुष जो सबका स्वामी है,वह कौन है,तुम्हारा पति कौन है,और हमारा पिता कहाँ है,माँ ने उत्तर दिया कि सृष्टि की रचयिता मैं हूँ और मेरे सिवा कोई और नहीं है,तो ब्रम्हा ने हठ कर लिया कि,वेद ने फिर ऐसा क्यों कहा,इस प्रकार की बहस के बाद अंत में माँ ने स्वीकार कर लिया की निरंजन ही पुरुष है और वो गुप्त है उसका दर्शन कोई नहीं पा सकता है, सात स्वर्ग उस निरंजन का माथा है,और सात पाताल उसके चरण हैं और वही तुम्हारा पिता है,हालाँकि वह गुप्त है,पर उसका दर्शन करना है तो फूल मालाएं लेकर जाओ और उसे खोजो,इस कथन के बाद ब्रम्हा और विष्णु दोनों निरंजन के दर्शन करने के लिए अपनी अपनी यात्रा पर चल दिए, ब्रम्हा माथे यानि आकाश की ओर गए, तो विष्णु चरण की ओर,दोनों अपने पिता की खोज में चल दिए,जबकि शिव ने कहीं जाना उचित नहीं समझा और वही रूककर अपनी माँ की सेवा में लग गए।
दोनों को गए बहुत दिन हो गए ,माँ भी अब सोचने लगी कि,दोनों अब तक लौटे नहीं ,और वे कर क्या रहे हैं,सबसे पहले विष्णु लौटे उन्होंने माँ को सारी कथा सुनाई कि,मिला तो कुछ नहीं उलटे उनका शरीर विष की ज्वाला से काला पड़ गया,जिसके कारण मैं व्याकुल हो गया तो लौट आया, माँ विष्णु के सच को जानकार खुश हो गयी।ब्रम्हा भी चलते चलते वहाँ पहुँच गए जहाँ न सूर्य था न चंद्र,सिर्फ शून्य था वहां पहुंचकर ब्रम्हा ने ज्योति के प्रभाव में ध्यान लगाया और चार युगों तक तपस्या की,पर पिता के दर्शन नहीं हुए। माता भी अब चिंतित हो गयी कि ब्रम्हा अब तक लौटे क्यों नहीं,तो ब्रम्हा को लौटाने के लिए माँ ने एक उपाय किया उन्होंने उबटन लगाकर,उसकी मैल से गायत्री की रचना की और उसे ब्रम्हा को लौटा लाने का कार्य सौंपा,और बताया कि तुम्हारा बड़ा भाई ब्रम्हा पिता की खोज में आकाश की ओर गया है,पिता के दर्शन तो उसे होंगे नहीं,तुम कुछ भी करो उसे वापस लिवा आओ,गायत्री ढूँढ़ते ढूँढ़ते वहां पहुंची, तो उसने ब्रम्हा को तपस्या में लीन पाया,अब वो युक्ति ढूंढ़ने लगी के ब्रम्हा को वापस कैसे ले चले। उसने मन ही मन आद्या माता से प्रार्थना की ,तो अाद्या माता ने ब्रम्हा को छूकर उसका ध्यान भंग करने की विधि बताई,गायत्री ने ऐसा ही किया,उसने ब्रम्हा के चरण छु लिए तो ब्रम्हा का ध्यान भंग हो गया और उसका मन उस सुकुमारी को देखकर डोल गया।
ब्रम्हा पिता के दर्शन न पाने से निराश हो गया था,उस पर गायत्री ने उसे वापस चलने के लिए कहा तो,ब्रम्हा ने कहा,पिता के दर्शन अब तक नहीं हुए मैं वापस कैसे जाऊँ,वापस जाने पर माँ पूछेंगी तो क्या बताऊंगा? गायत्री ने कहा वापस नहीं लौटोगे तो सृष्टि कैसे चलेगी,वापस नहीं चलोगे तो पछताओगे,ब्रम्हा ने कहा,तुम झूठी गवाही दे दो के ब्रम्हा ने निरंजन के दर्शन मेरे सामने किया है,मेरे सामने ऐसा हुआ! तो मैं तुम्हारे साथ चल सकता हूँ। गायत्री ने ब्रम्हा से कहा,मैं झूठ नहीं बोलूंगी,हाँ यदि तुमने मेरा स्वार्थ पूरा कर दिया तो,मैं इस प्रकार की बात कह सकती हूँ, और तुम्हे जितवा सकती हूँ। ब्रम्हा ने विस्मित होकर पुछा,तुम्हारा कैसा स्वार्थ ? तो गायत्री ने उससे कहा,कि तुम मेरे साथ रतिक्रिया करोगे यही मेरा स्वार्थ है,और इसमें तुम्हारा भी परमार्थ छिपा है,यदि ऐसा करो तो मैं झूठी गवाही देने को तैयार हूँ। ब्रम्हा ने काफी सोच विचार करने के बाद गायत्री की बात मान ली,और दोनों विषयभोग में लिप्त हो गये,उस उमंग से निवृत्त होकर दोनों ने माँ से छल करने का निश्चय किया,तो गायत्री ने ब्रम्हा से एक और गवाही तैयार करने की युक्ति बताई जिससे उनके छल को बल मिल सके,ब्रम्हा की सहमति से गायत्री ने अपनी देह की मैल से,शक्ति का अंश मिलाकर एक और कन्या की रचना की,जिसका नाम पुहुवावती रखा गया और उससे भी ब्रम्हा की झूठी गवाही का प्रश्न रखा गया,तो वो भी अपने स्वार्थ की पूर्णता की शर्त पर ब्रम्हा की गवाही को तैयार हो गयी,गायत्री ने ब्रम्हा को फिर समझाया,तो फलस्वरूप ब्रम्हा ने फिर वही कर्म किया जो गायत्री के साथ किया था, इस तरह से उसने अपने सर पर बहुत बड़ा पाप चढ़ा लिया।
अब तीनो मिलकर अपनी माँ अष्टांगी के दर्शन को निकल पड़े,वहां पहुंचकर माता को प्रणाम किया,तो कुशल क्षेम पूछने के बाद माँ ने ब्रम्हा से सवाल किया ,क्या तुमने अपने पिता के दर्शन किये,और ये दूसरी स्त्री कौन है? जवाब में ब्रम्हा ने कहा ,हाँ मैंने दर्शन किये,ये दोनों इस बात की गवाह हैं,आप इनसे पूछ लें ,ये सत्य है।
माँ ने गायत्री से पुछा, तो गायत्री ने भी झूठी गवाही देते हुए कहा ,मैंने पिता के शीश का दर्शन पाते हुए ब्रम्हा को देखा है,उस शीश पर ब्रम्हा ने फूल चढ़ाकर ,जल दिया उसी फूल से पुहुवावती उत्पन्न हुयी है, इसने भी पिता के दर्शन किये हैं। पुहुवावती ने भी यही बात माँ के सामने दोहराई और कहा उसने भी पिता के दर्शन किये,तो माँ आश्चर्यचकित रह गयी क्योंकि निरंजन उनसे प्राण करके गए थे कि,अब कोई उनको देख नहीं पायेगा,और ये तीनों कहते हैं कि,इन्होने दर्शन किये है।
आद्या ने निरंजन का ध्यान किया,और सच जानकर क्रोधित हो गयी,और ब्रम्हा को श्राप दे दिया कि,तुमने एक तो झूठ बोला,उस पर भी विषयभोग में लिप्त रहे और व्यभिचार किया,फलस्वरूप अब तुम्हारी पूजा कोई नहीं करेगा,जो तुम्हारी संतति होगी वो भ्रष्ट ही पैदा होगी,झूठ बोलेगी और पाप करेगी अर्थात ब्रम्हा के वंशधर या ब्राम्हण कहे जानेवाले प्रकट में,बाहर से दिखावे के लिए बहुत नियम धर्म,व्रत उपवास,पूजा एवं शुचि का दिखावा तो बहुत करेंगे,परन्तु भीतर से विषयादि मैल से भरे होंगे,और विष्णु भक्तों से अहंकार करेंगी और नरक भोगेंगी, पुराणों की कथाएं दूसरों को तो बताएंगी पर खुद उनका अनुसरण नहीं करेंगी और दुःख भोगेंगी,परमात्म ज्ञान एवं भक्ति न बताकर दुसरे देवताओं को ईश्वर का अंश बताकर उनकी पूजा कराएंगी।आत्मज्ञानी जनो की निंदा कर के काल के मुख में जाएँगी,अनेक देवी देवताओं की पूजा करा के दक्षिणा खुद लेंगी और दक्षिणा के कारण पशु बलि देकर उनका गला कटवाएंगी और दक्षिणा के लोभ में औरों का गला काटेंगी। अपने आप को ऊंचा और दुसरे को छोटा कहेंगी,और तेरी तरह झूठी और मक्कार होंगी।
आद्या माँ ने गायत्री को कामवश होने के कारण श्राप दिया,कि तू गाय के रूप में जन्म लेगी,तेरे गाय रुपी शरीर में पांच से सात पति होंगेजो तुझसे सम्भोग करेंगे और तू अभक्ष्य का भी भक्षण करेगी,पुहुवावती को श्राप देते हुए उन्होंने कहा कि, तुम केवड़ा केतकी के रूप में गन्दी जगहों पर ही वास करोगी,तुम्हारे विश्वास पर,तुमसे आशा रखकर कोई कभी नहीं पूजा करेगा ,जो तुम्हे सींचेगा उसके वंश का नाश हो जायेगा। इस तरह ब्राम्हण,गाय और केतकी का धरती पर वास हुआ, और ये आज भी उस श्राप के फल को भुगतते हुए आचरण कर रहें हैं।
कथा इस प्रकार है,जब समुद्रमंथन हुआ तो उस मंथन में और चीज़ों के साथ निकले वेद,तेज और हलाहल विष,जो क्रमशः ब्रम्हा,विष्णु और महेश ने आपस में बाँट ली,ब्रम्हा को वेद,विष्णु को तेज यानि अमृत और महेश को हलाहल प्राप्त हुआ वे उन वस्तुओं को लेकर अपनी माँ अष्टांगी के पास गए तो माँ ने तीनो को उन चीज़ों को अपने अपने पास रखने को कहा,साथ ही फिर से समुद्र मथने का आदेश दिया,जिसमे अष्टांगी ने अपने अंश को मिला कर तीन कन्यायें पैदा की,फिर से समुद्र मंथन हुआ तो तीन कन्याएं उस में से प्राप्त हुईं,जिसमे ब्रम्हा को सावित्री,विष्णु को लक्ष्मी और शिव को पार्वती की प्राप्ति हुई,तीनो भाइयों ने काम विषय के वशीभूत होकर देव और दैत्य पैदा किये,फिर समुद्र मंथन हुआ तो चौदह रत्नो की प्राप्ति हुई जो तीनो ने आपस में बाँट ली,तीनो भाइयों ने अब सृष्टि की रचना आरम्भ कर दी,और सृष्टि का विकास प्रारंभ हो गया। अष्टांगी ने अण्डज खनि की उत्पति अपने अंश से की,पिण्डज खानि को ब्रम्हा ने उत्पन्न किया ऊष्मज खानि को विष्णु ने तो स्थावर खानि शिव ने उत्पन्न की,और सृष्टि का विकास किया। इन सबने मिलकर चौरासी लाख योनियों की रचना की और उनके स्वभाव के अनुसार जल और थल का निर्माण किया,जिसमे स्थावर खानि एक तत्त्व,और ऊष्मज खानि की दो तत्वों से रचना हुई,अण्डज खानि की तीन तत्वऔर पिण्डज खानि की चार तत्वोँ से रचना हुई,पांचवी खानि पांच तत्वों से बनी जो मनुष्य योनि के रूप में हुई,तो इस तरह सृष्टि की रचना हुई, जिसमे मनुष्य ही सिर्फ ऐसी खानि थी, जो पांच तत्व और तीन गुणों से मिलकर बनी,जो ज्ञान प्रधान और सर्वश्रेष्ठ थी। सृष्टि की रचना का कार्य यहाँ तक तो निर्बाध चला परन्तु आगे अवरुद्ध हो गया क्यूंकि अब तीनों मिलकर अपने पिता निरंजन की खोज में लग गए,इसके पश्चात् ब्रम्हा वेदों का अध्ययन करने लगे जिसके कारण उन्हें अपने पिता निरंजन के प्रति अनुराग पैदा हो गया,क्यूंकि वेद कहता है कि, एक पुरुष है,निराकार है,उसका कोई रूप नहीं है।
वह निरंजन जो एक पुरुष है,निराकार है,और उसका कोई रूप नहीं है,वह शून्य में भी ज्योति दिखाता है,यानि प्रकाश दिखाता है पर उसका शरीर दिखाई नहीं पड़ता,उसका शीश स्वर्ग है और पांव पाताल है। इस वेद मत को जानकर ब्रम्हा अति प्रसन्न हो गया। ब्रम्हा ने विष्णु को बताया कि, वेद ने उसे आदिपुरुष को दिखा दिया,फिर उसने शिव को बताया कि वेद पढ़ने से पता चलता है कि,पुरुष तो एक ही है और वही सबका स्वामी है,ये तो वेदों ने बता दिया साथ ही साथ ये भी कह दिया कि,हमने भी उसका रहस्य नहीं पाया है। ब्रम्हा ने अपनी बात को अपनी माँ अष्टांगी को भी बताई कि,वेदों का ऐसा मत है,तो आप हमें बताइये के वह पुरुष जो सबका स्वामी है,वह कौन है,तुम्हारा पति कौन है,और हमारा पिता कहाँ है,माँ ने उत्तर दिया कि सृष्टि की रचयिता मैं हूँ और मेरे सिवा कोई और नहीं है,तो ब्रम्हा ने हठ कर लिया कि,वेद ने फिर ऐसा क्यों कहा,इस प्रकार की बहस के बाद अंत में माँ ने स्वीकार कर लिया की निरंजन ही पुरुष है और वो गुप्त है उसका दर्शन कोई नहीं पा सकता है, सात स्वर्ग उस निरंजन का माथा है,और सात पाताल उसके चरण हैं और वही तुम्हारा पिता है,हालाँकि वह गुप्त है,पर उसका दर्शन करना है तो फूल मालाएं लेकर जाओ और उसे खोजो,इस कथन के बाद ब्रम्हा और विष्णु दोनों निरंजन के दर्शन करने के लिए अपनी अपनी यात्रा पर चल दिए, ब्रम्हा माथे यानि आकाश की ओर गए, तो विष्णु चरण की ओर,दोनों अपने पिता की खोज में चल दिए,जबकि शिव ने कहीं जाना उचित नहीं समझा और वही रूककर अपनी माँ की सेवा में लग गए।
दोनों को गए बहुत दिन हो गए ,माँ भी अब सोचने लगी कि,दोनों अब तक लौटे नहीं ,और वे कर क्या रहे हैं,सबसे पहले विष्णु लौटे उन्होंने माँ को सारी कथा सुनाई कि,मिला तो कुछ नहीं उलटे उनका शरीर विष की ज्वाला से काला पड़ गया,जिसके कारण मैं व्याकुल हो गया तो लौट आया, माँ विष्णु के सच को जानकार खुश हो गयी।ब्रम्हा भी चलते चलते वहाँ पहुँच गए जहाँ न सूर्य था न चंद्र,सिर्फ शून्य था वहां पहुंचकर ब्रम्हा ने ज्योति के प्रभाव में ध्यान लगाया और चार युगों तक तपस्या की,पर पिता के दर्शन नहीं हुए। माता भी अब चिंतित हो गयी कि ब्रम्हा अब तक लौटे क्यों नहीं,तो ब्रम्हा को लौटाने के लिए माँ ने एक उपाय किया उन्होंने उबटन लगाकर,उसकी मैल से गायत्री की रचना की और उसे ब्रम्हा को लौटा लाने का कार्य सौंपा,और बताया कि तुम्हारा बड़ा भाई ब्रम्हा पिता की खोज में आकाश की ओर गया है,पिता के दर्शन तो उसे होंगे नहीं,तुम कुछ भी करो उसे वापस लिवा आओ,गायत्री ढूँढ़ते ढूँढ़ते वहां पहुंची, तो उसने ब्रम्हा को तपस्या में लीन पाया,अब वो युक्ति ढूंढ़ने लगी के ब्रम्हा को वापस कैसे ले चले। उसने मन ही मन आद्या माता से प्रार्थना की ,तो अाद्या माता ने ब्रम्हा को छूकर उसका ध्यान भंग करने की विधि बताई,गायत्री ने ऐसा ही किया,उसने ब्रम्हा के चरण छु लिए तो ब्रम्हा का ध्यान भंग हो गया और उसका मन उस सुकुमारी को देखकर डोल गया।
ब्रम्हा पिता के दर्शन न पाने से निराश हो गया था,उस पर गायत्री ने उसे वापस चलने के लिए कहा तो,ब्रम्हा ने कहा,पिता के दर्शन अब तक नहीं हुए मैं वापस कैसे जाऊँ,वापस जाने पर माँ पूछेंगी तो क्या बताऊंगा? गायत्री ने कहा वापस नहीं लौटोगे तो सृष्टि कैसे चलेगी,वापस नहीं चलोगे तो पछताओगे,ब्रम्हा ने कहा,तुम झूठी गवाही दे दो के ब्रम्हा ने निरंजन के दर्शन मेरे सामने किया है,मेरे सामने ऐसा हुआ! तो मैं तुम्हारे साथ चल सकता हूँ। गायत्री ने ब्रम्हा से कहा,मैं झूठ नहीं बोलूंगी,हाँ यदि तुमने मेरा स्वार्थ पूरा कर दिया तो,मैं इस प्रकार की बात कह सकती हूँ, और तुम्हे जितवा सकती हूँ। ब्रम्हा ने विस्मित होकर पुछा,तुम्हारा कैसा स्वार्थ ? तो गायत्री ने उससे कहा,कि तुम मेरे साथ रतिक्रिया करोगे यही मेरा स्वार्थ है,और इसमें तुम्हारा भी परमार्थ छिपा है,यदि ऐसा करो तो मैं झूठी गवाही देने को तैयार हूँ। ब्रम्हा ने काफी सोच विचार करने के बाद गायत्री की बात मान ली,और दोनों विषयभोग में लिप्त हो गये,उस उमंग से निवृत्त होकर दोनों ने माँ से छल करने का निश्चय किया,तो गायत्री ने ब्रम्हा से एक और गवाही तैयार करने की युक्ति बताई जिससे उनके छल को बल मिल सके,ब्रम्हा की सहमति से गायत्री ने अपनी देह की मैल से,शक्ति का अंश मिलाकर एक और कन्या की रचना की,जिसका नाम पुहुवावती रखा गया और उससे भी ब्रम्हा की झूठी गवाही का प्रश्न रखा गया,तो वो भी अपने स्वार्थ की पूर्णता की शर्त पर ब्रम्हा की गवाही को तैयार हो गयी,गायत्री ने ब्रम्हा को फिर समझाया,तो फलस्वरूप ब्रम्हा ने फिर वही कर्म किया जो गायत्री के साथ किया था, इस तरह से उसने अपने सर पर बहुत बड़ा पाप चढ़ा लिया।
अब तीनो मिलकर अपनी माँ अष्टांगी के दर्शन को निकल पड़े,वहां पहुंचकर माता को प्रणाम किया,तो कुशल क्षेम पूछने के बाद माँ ने ब्रम्हा से सवाल किया ,क्या तुमने अपने पिता के दर्शन किये,और ये दूसरी स्त्री कौन है? जवाब में ब्रम्हा ने कहा ,हाँ मैंने दर्शन किये,ये दोनों इस बात की गवाह हैं,आप इनसे पूछ लें ,ये सत्य है।
माँ ने गायत्री से पुछा, तो गायत्री ने भी झूठी गवाही देते हुए कहा ,मैंने पिता के शीश का दर्शन पाते हुए ब्रम्हा को देखा है,उस शीश पर ब्रम्हा ने फूल चढ़ाकर ,जल दिया उसी फूल से पुहुवावती उत्पन्न हुयी है, इसने भी पिता के दर्शन किये हैं। पुहुवावती ने भी यही बात माँ के सामने दोहराई और कहा उसने भी पिता के दर्शन किये,तो माँ आश्चर्यचकित रह गयी क्योंकि निरंजन उनसे प्राण करके गए थे कि,अब कोई उनको देख नहीं पायेगा,और ये तीनों कहते हैं कि,इन्होने दर्शन किये है।
आद्या ने निरंजन का ध्यान किया,और सच जानकर क्रोधित हो गयी,और ब्रम्हा को श्राप दे दिया कि,तुमने एक तो झूठ बोला,उस पर भी विषयभोग में लिप्त रहे और व्यभिचार किया,फलस्वरूप अब तुम्हारी पूजा कोई नहीं करेगा,जो तुम्हारी संतति होगी वो भ्रष्ट ही पैदा होगी,झूठ बोलेगी और पाप करेगी अर्थात ब्रम्हा के वंशधर या ब्राम्हण कहे जानेवाले प्रकट में,बाहर से दिखावे के लिए बहुत नियम धर्म,व्रत उपवास,पूजा एवं शुचि का दिखावा तो बहुत करेंगे,परन्तु भीतर से विषयादि मैल से भरे होंगे,और विष्णु भक्तों से अहंकार करेंगी और नरक भोगेंगी, पुराणों की कथाएं दूसरों को तो बताएंगी पर खुद उनका अनुसरण नहीं करेंगी और दुःख भोगेंगी,परमात्म ज्ञान एवं भक्ति न बताकर दुसरे देवताओं को ईश्वर का अंश बताकर उनकी पूजा कराएंगी।आत्मज्ञानी जनो की निंदा कर के काल के मुख में जाएँगी,अनेक देवी देवताओं की पूजा करा के दक्षिणा खुद लेंगी और दक्षिणा के कारण पशु बलि देकर उनका गला कटवाएंगी और दक्षिणा के लोभ में औरों का गला काटेंगी। अपने आप को ऊंचा और दुसरे को छोटा कहेंगी,और तेरी तरह झूठी और मक्कार होंगी।
आद्या माँ ने गायत्री को कामवश होने के कारण श्राप दिया,कि तू गाय के रूप में जन्म लेगी,तेरे गाय रुपी शरीर में पांच से सात पति होंगेजो तुझसे सम्भोग करेंगे और तू अभक्ष्य का भी भक्षण करेगी,पुहुवावती को श्राप देते हुए उन्होंने कहा कि, तुम केवड़ा केतकी के रूप में गन्दी जगहों पर ही वास करोगी,तुम्हारे विश्वास पर,तुमसे आशा रखकर कोई कभी नहीं पूजा करेगा ,जो तुम्हे सींचेगा उसके वंश का नाश हो जायेगा। इस तरह ब्राम्हण,गाय और केतकी का धरती पर वास हुआ, और ये आज भी उस श्राप के फल को भुगतते हुए आचरण कर रहें हैं।
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