भारतीय होने के अपने मायने
ये उन दिनों की बात है जब पूरी मुंबई सन १९९३ के दंगो की विभीषिका झेल रहा था,और देश के कई और हिस्सों में भी इंसानियत को शर्मसार करने की घटनायें घटित हो रही थी,मैं किशोरवय था और कॉलेज का छात्र हुआ करता था, जिस जगह हमारी रिहायश हुआ करती थी वह जगह अधिकांशतः या यूँ कहें की पूर्णतः मुस्लिम बस्ती थी, मैं भी उस जगह दंगो की गिरफ्त में आ गया था चूँकि समय रहते मुझे वह जगह छोड़ने का मौका नहीं मिल पाया था,सारी बस्ती दंगो की चपेट में आ गयी थी, वहशियत का ,एवं अफवाहों का बाजार गर्म हो गया था,चूँकि मैं अपनी बस्ती के अपने मोहल्ले में जो की, सोलह कमरों की चॉल हुआ करती थी, उनमें अकेला हिंदू था हालाँकि मैं भी भीतर से डर रहा था फिर भी मैं अपने धैर्य को बरक़रार रखे हुए था कि अचानक पुलिस की गाड़ियों की आवाजों से माहौल कर्कश एवं तनावग्रशित हो गया,और पुलिस की साईरन बजाती हुई गाड़ियों से अनॉउंस होने लगा की पूरी बस्ती में कर्फ्यू लग गया है और कोई भी अपने घर से बाहर न निकले नहीं तो देखते ही गोली मार दी जायेगी,उस समय की याद आते ही आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं,फ़िज़ा में ऐसी ख़ामोशी घुल गयी थी कि ,एक सुई भी गिरे तो आवाज़ हो | अब मुझे अपनी गलती का एहसास होने लगा था,कि मैंने समय रहते वह जगह क्यों नहीं छोड़ी,धीरे धीरे शाम का वक़्त होने लगा और मेरा भी दम अब घुटने लगा था,मैं भी अब अपने पड़ोसियों के प्रति संदेहास्पद होने लगा था,जहाँ मेरा घर था उस घर के ठीक सामने वाला घर रुखसाना की माँ का था,जिन्हे मेरा पूरा मोहल्ला खाला कहकर बुलाता था, वो दक्षिण भारतीय महिला थी और बहुत ही चिड़चिड़ी हुआ करती थी,मुझे सच कहूं तो डर उन्ही से लगता था,खैर किसी तरह शाम बीती और रात का धुंधलका बढ़ने लगा,सारे दिन का तनाव एवं डर अब और बढ़ गया था,मेरे घर की गैलरी सामनेवाले मकान की गैलरी से सट के थी, अचानक वहां गैलरी में खटपट की आवाजें सुनाई देने लगी उन आवाज़ों ने मेरे दिल के धड़कने की रफ्त्तार बढ़ा दी और एक अनजानी सी भय की लहर मेरे वजूद को घेरने लगी थी,मेरे रीढ़ की हड्डियों में भय की सिहरन सी होने लगी फिर भी मैंने साहस जुटाकर अपने घर की खिड़की खोल दी ताकि देख सकूं के माजरा क्या है,अब जो भी होना होगा,सो होगा ही तो डरने से क्या फ़ायदा ,खिड़की खोलते ही मैंने देखा की ख़ाला का लड़का, जिसका नाम युसूफ था, वह गैलरी की सलाखों को तोड़ रहा था, मैंने उसकी तरफ कातर दृष्टि से देखा तो उसने आत्मीय स्वर में कहा, "नरेंद्र, मैं ने गैलरी की सलाखों को तोड़ दिया है,क्यूंकि बगल के मोहल्ले के कुछ लोग हिंदुओं को ढूंढ रहे हैं मुझे डर है के वह तुम्हे पकड़ सकते हैं,तो ऐसा कुछ हो इस से पहले तुम हमारे घर में गैलरी पार कर के आ जाना " इतना सुनते ही मेरी आँखें सजल हो गयीं और मैंने गर्दन हिलाकर युसूफ की तरफ ख़ामोशी से अनुग्रह एवं कृतज्ञता की दृष्टि से देखा जैसे मन ही मन कह रहा होऊं के यूसुफभाई आपके जैसे इंसान अगर मौजूद हों तो मुझे डर किस बात का,ख़ैर दंगों पर प्रशासन ने काबू पा लिया, पर उस दिन के बाद इस घटना को याद करते हुए अचानक मेरी राय ख़ाला और यूसुफभाई के प्रति बदल गयी और वही खालाअब मुझे वात्सल्य एवं करुणा की मूर्ति सी दिखाई देने लगी,आज हम उस जगह नहीं रहते हमने अपना घर हिंदू बाहुल्य इलाके में ले लिया है पर जब भी मुझे यूसुफभाई याद आते हैं मेरे मन में उन के प्रति एक अनजानी सी आदर की भावना उमड़ने लगती है,और उन दिनों की याद करते हुए गुदगुदी का एक ऐसा एहसास होता है,जैसे बेहिसाब गर्मी के मौसम के बाद अचानक बिजली कड़कती है एवं बादलों पर गिरती है ,गिरने के बाद पहली बारिश का एहसास हो,कहीं मैंने एक लघुकथा पढ़ी थी, जिसमे एक पिता अपने बेटे के साथ समुद्र के किनारे किनारे सैर करते हुए चल रहा था,समुद्र की लहरें आती और उनके पैरों को छूकर चली जाती थीं ,उन्ही लहरों के साथ समुद्र में रहनेवाली छोटी छोटी मछलियाँ भी किनारे पर आकर रेत पर तड़पने लगती थीं ,बेटे के मन में उन छोटी मछलियों के लिए दया एवं करुणा का भाव जाग गया वो मछलियों को एक एक कर उठाता और पानी में छोड़ देता था,उसकी ये हरकत देखकर पिता ने कहा," इससे क्या फर्क पड़ेगा, कितनी ही मछलियां लहरों के साथ किनारे पर आ जाती हैं"बेटे ने पिता को उत्तर दिया ,"हाँ इससे खास फर्क तो नहीं पड़ता,पर उस एक मछली को जो पानी में वापस चली गयी उसे तो फर्क पड़ेगा"कहने की आवश्यकता नहीं हैं कि,पिता निरुत्तर हो गया .... अब मैं ये महसूस करता हूँ के मेरे देश में मौजूद लोगों में अपनेपन की इस तरह की संवेदनाओं ने ही इसकी विभिन्नता में एकता को एक सूत्र में पिरो रखा है
भारतीय होने के अपने मायने
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भारतीय होने के अपने मायने
It's ulttimate
ReplyDeleteThank you.
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