मेरे पितामह की वीरगति
वो रात बड़ी काली थी, बढ़ती रात की कालिमा के साथ उनकी वेदना भी बढ़ती जा रही थी। मरणपीड़ा की असहनीय और मर्मान्तक पीड़ा की झलक उनके चेहरे पर आती और चली जाती,इसी के साथ दर्द को पीने की उनकी कोशिशें भी असफल सिद्ध हो जातीं। उस अवस्था में भी उनकी आवाज़ में एक खनक थी, और वो पूरी तरह स्पष्ट थी। पिछले सत्रह दिनों से वे मृत्यु से लगातार युद्ध लड़ रहे थे,गजब के योद्धा थे वो, उनकी वीरता अब पराकाष्ठा पर थी। मौत से लड़ने का कौशल क्या होता है, पहली बार ये मैंने उनसे जाना,उनके इसी साहस से मैंने महसूस किया, कि मरना भी एक कला है।
आदमी सारा जीवन खर्च कर देता है अपनी मृत्यु कमाने में, कहीं मैंने ऐसा पढ़ा था,सारी ज़िन्दगी वो जैसा आचरण करता है जीवन के सार्थक अंतिम कुछ पल ही उसकी सार्थक परिणीति होते हैं। जैसा जिसका व्यव्हार, वैसी उसकी मृत्यु का परिणाम, जैसे मरने वाला यदि तामसी प्रवृत्ति का है तो,वो मरते समय बेहोश हो जाता है, क्यूंकि उसका सारा जीवन खुराफात करने में ही व्यर्थ हो जाता है और अंतिम पलों के एहसास से ही वो बेहोश हो जाता है। उनकी मृत्यु की घटना भी उसी बेहोशी में घटती हैं। राजसी प्रवृत्ति के लोग अक्सर अपने अंतिम समय में पागल हो जाते हैं, वजह ये है की सारा जीवन वे धन,प्रसिद्धि,और ऐश्वर्य कमाने के पीछे पागलों सा दौड़ते हैं, और परिणाम अंतिम समय में पागलपन के दौरे के रूप में सामने आता है। परन्तु जो सतोगुणी होते हैं तो वे अंतिम समय तक होशपूर्ण होते हैं उनकी आवाज़ में वही रौब होता है,वही मृत्यु वीरगति होती है, और इस तरह की मृत्यु का वरण करनेवाला वीर ही होता है.
जिसकी मृत्यु की यह कहानी है वे कोई और नहीं मेरे पितामह थे. उन्हें भीष्म की तरह इच्छामृत्यु का वरदान भले ही नहीं था, अपनी तरफ आती हुई मृत्यु की आहट उन्होंने पहले ही महसूस कर ली थी। होली नजदीक थी, उन्होंने पूछा,''तुम्हारा त्यौहार कब है '' हमने बताया दो दिन बाद, उन्होंने कहा ,''अब त्यौहार के बाद ही मरूँगा '' ऐसी विलक्षण थी उनकी मौत का समय तय करने की स्थिति।
मेरी भी हार्दिक इच्छा थी की वह अब अपने शरीर का परित्याग कर ही दें तो बेहतर हो, मृत्यु से पंजा लड़ने की उनकी कोशिशों से उनकी बहुत ही दुर्गति हो रही थी,जिससे मैं अब द्रवित हो चला था। मरने से कुछ समय पहले अपने विचारों को शब्दों का रूप देते हुए उन्होंने कहा, '' बहुत दिनों से सोया नहीं हूँ , आज सोऊंगा '' मैंने उनसे पूछा ,'' यानि आज आप चले जाओगे '' तो उन्होंने कहा , '' मैं क्या जानू ,राम जाने '' . मैंने उन्हें तुलसी मिश्रित गंगा जल पिलाते हुए कहा, ''तो ये हमारी अंतिम मुलाकात है, ठीक है मैं अब सोने जा रहा हूँ, अब हम फिर शायद न मिलें '' जो शब्द उन्हें मुझसे कहना चाहिए था, वे शब्द मैं उनसे कह रहा था।
अभी पौ भी नहीं फटी थी,कि मेरी बहन ने आवाज़ दी,'' दादाजी चल बसे '' मैं जानता था कि वे अब सुबह नहीं मिलेंगे क्यूंकि उन्होंने कहा था ,''आज मैं सोऊंगा,बहुत दिनों से सोया नहीं हूँ '' रात की कालिमा मेरे दादाजी की सांसों को लील चुकी थी, वो भी अब चल दिए थे एक अनजान गंतव्य और अनजान दिशा की ओर .......
आदमी सारा जीवन खर्च कर देता है अपनी मृत्यु कमाने में, कहीं मैंने ऐसा पढ़ा था,सारी ज़िन्दगी वो जैसा आचरण करता है जीवन के सार्थक अंतिम कुछ पल ही उसकी सार्थक परिणीति होते हैं। जैसा जिसका व्यव्हार, वैसी उसकी मृत्यु का परिणाम, जैसे मरने वाला यदि तामसी प्रवृत्ति का है तो,वो मरते समय बेहोश हो जाता है, क्यूंकि उसका सारा जीवन खुराफात करने में ही व्यर्थ हो जाता है और अंतिम पलों के एहसास से ही वो बेहोश हो जाता है। उनकी मृत्यु की घटना भी उसी बेहोशी में घटती हैं। राजसी प्रवृत्ति के लोग अक्सर अपने अंतिम समय में पागल हो जाते हैं, वजह ये है की सारा जीवन वे धन,प्रसिद्धि,और ऐश्वर्य कमाने के पीछे पागलों सा दौड़ते हैं, और परिणाम अंतिम समय में पागलपन के दौरे के रूप में सामने आता है। परन्तु जो सतोगुणी होते हैं तो वे अंतिम समय तक होशपूर्ण होते हैं उनकी आवाज़ में वही रौब होता है,वही मृत्यु वीरगति होती है, और इस तरह की मृत्यु का वरण करनेवाला वीर ही होता है.
जिसकी मृत्यु की यह कहानी है वे कोई और नहीं मेरे पितामह थे. उन्हें भीष्म की तरह इच्छामृत्यु का वरदान भले ही नहीं था, अपनी तरफ आती हुई मृत्यु की आहट उन्होंने पहले ही महसूस कर ली थी। होली नजदीक थी, उन्होंने पूछा,''तुम्हारा त्यौहार कब है '' हमने बताया दो दिन बाद, उन्होंने कहा ,''अब त्यौहार के बाद ही मरूँगा '' ऐसी विलक्षण थी उनकी मौत का समय तय करने की स्थिति।
मेरी भी हार्दिक इच्छा थी की वह अब अपने शरीर का परित्याग कर ही दें तो बेहतर हो, मृत्यु से पंजा लड़ने की उनकी कोशिशों से उनकी बहुत ही दुर्गति हो रही थी,जिससे मैं अब द्रवित हो चला था। मरने से कुछ समय पहले अपने विचारों को शब्दों का रूप देते हुए उन्होंने कहा, '' बहुत दिनों से सोया नहीं हूँ , आज सोऊंगा '' मैंने उनसे पूछा ,'' यानि आज आप चले जाओगे '' तो उन्होंने कहा , '' मैं क्या जानू ,राम जाने '' . मैंने उन्हें तुलसी मिश्रित गंगा जल पिलाते हुए कहा, ''तो ये हमारी अंतिम मुलाकात है, ठीक है मैं अब सोने जा रहा हूँ, अब हम फिर शायद न मिलें '' जो शब्द उन्हें मुझसे कहना चाहिए था, वे शब्द मैं उनसे कह रहा था।
अभी पौ भी नहीं फटी थी,कि मेरी बहन ने आवाज़ दी,'' दादाजी चल बसे '' मैं जानता था कि वे अब सुबह नहीं मिलेंगे क्यूंकि उन्होंने कहा था ,''आज मैं सोऊंगा,बहुत दिनों से सोया नहीं हूँ '' रात की कालिमा मेरे दादाजी की सांसों को लील चुकी थी, वो भी अब चल दिए थे एक अनजान गंतव्य और अनजान दिशा की ओर .......
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