धर्म का मर्म:धारणा,विज्ञान,आस्था या कुछ और....?

ज्वलंत प्रश्न है,धर्म क्या है? धर्म की बात की जाये तो हिंदू मान्यता धर्म विषयक ये है,कि जो चित्तवृत्ति नियमित रुप से धारण की  जाये वो विश्वास ही,वो विशेष चित्तवृत्ति ही धर्म है। ठीक है,जिस विश्वास को हम प्रतिदिन के दैनिक जीवन में पूरी ईमानदारी से धारण करते हैं,वो विश्वास ही धर्म है। यही विश्वास, हिंदू धारणा है,जो की यदि प्रतिदिन दोहराते रहें तो आस्था का केंद्र बन जाता है। अक्सर ये व्यवस्था अनुवांशिक तौर तरीके से पीढ़ी दर पीढ़ी नीचे की पीढ़ियों में प्रसारित होती रहती है। अब प्रश्न ये आता है कि,क्या धारणा बदलती रहनी चाहिए ,तो हाँ धारणा को निश्चित रूप से बदलते समय,बदलते विज्ञान,बदलते परिवेश के अनुसार उस विशेष परिस्थिति के साथ पूर्ण रूप से न सही,पर इसके परिष्कृत रूप को बदलने और अंगीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। आखिरकार धारणा ही आगे बढ़कर मज़बूती से,ठोस रूप से भक्ति का रूप होती है,ये भक्ति कुछ अलग कर्मकांड न होकर सतत रूप से जब ठोस हो जाती है,एकाग्र चित्त भाव में आ जाती है,तो उसी एकाग्र चित्तवृत्ति को भक्ति कहते हैं। यदि ,धारणाएँ न बदलें तो इससे वृत्तियों के अपभ्रंश होने या नष्ट होने का भय बना रहता है। कुल सारांश ये है की धर्म जीवन जीने का तरीका है,परेशानी का सबब ये है के अब लोगों ने अपनी अपनी व्यवस्था के अनुरूप उसमे नए नए तरीक़े,नयी नयी आस्थायें,नए नए विषयों को जोड़ दिया है।
धर्म और विज्ञान एक दूसरे के पूरक या यूँ कहिये पर्यायवाची हैं ऐसी मेरी मान्यता है,ऐसी हिन्दू संस्कृति की भी मान्यता है। यदि हम किसी भी धर्म को मानते हैं तो वो हर बिंदु से विज्ञानमय ही होना चाहिए और ऐसा होता भी है। ऐसा इसलिए भी है क्यूंकि पंचमहाभूतों से बना ये शरीर खुद ही एक विज्ञान है,इसकी अपनी रासयनिक क्रियाएं है,संरचनाएं हैं  ,तो विज्ञान के अनुरूप चलना भी शारीरिक धर्म है,इसकी अपनी महिमा है इस बात को हमें मह्सूस करते रहना चाहिये। शरीर का कोई भी रूप,सूक्ष्म ,स्थूल,या कारण अथवा आध्यात्मिक तीनो ही शरीरों के सफल संयोजन के लिए विज्ञान और धर्म दोनों का पालन करना आवश्यक है।
अब बात होती है आस्था की तो हमारी आस्था हमारे विश्वास एवं आध्यत्मिक रुख के अनुरूप ही होती है,क्यूंकि एक बात तो स्वीकार करनी ही होगी के आत्मा ही सर्वोपरि है,यदि कहें तो, यही आत्मा दृश्य  शरीर है,और शरीर अदृश्य आत्मा है,ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
अब अंतिम तथ्य ये है,के धर्म में दुकानदारी,ठेकेदारी,जिसने पूरे धर्म की परिभाषा को बदल कर इसके माननेवालों को भ्रमित कर दिया है,बहुतेरी नयी पीढ़ियों में धर्म और उसके विज्ञानं के प्रति अरुचि इन्ही दुकानदारियों ने,ठेकेदारियों ने पैदा कर दी हैं जो निश्चित रूप से धर्म को तोड़ मरोड़कर रख देती है। वक़्ती तौर के थोड़े से फायदे ने पूरी की पूरी पीढ़ियों को दिग्भ्रमित करके धर्म की सरलता को खत्म कर दिया है। यही वजह है की हिंदू  वैदिक सभ्यता को माननेवाले दुसरे धर्मों के प्रवचनकर्ताओं से प्रश्न करते नज़र आते हैं,और वो प्रवचनकर्ता,जो खुद पोंगापंथी है,उल्टा सीधा उत्तर दे कर ऐसे भ्रमित लोगों को अपनी जाल में फंसाते  है,टोने टोटके,भूत प्रेत और जाने क्या क्या प्रपंच इन्ही भ्रमित लोगों की वजह से है,जिन्हे धर्म के मर्म का कोई ज्ञान नहीं हैं। पर उनके खुद के अज्ञान और ख़ुदग़र्ज़ियों के कारण धर्म की क्षति हो रही है। ऐसे लोगों को पता होना चाहिए कि, झूठे सुख को सुख कहे,मानत है मन मोद।  जगत चबैना काल का,कुछ मुँह में कुछ गोद।।   
कहने का सार ये है कि,हम धर्म के वक्तव्य,धर्म की जानकारी,एवं धर्म के गूढ़ रहस्य उन्ही से सीखें जो धर्म का मर्म जानते हों,उसको बताने के,एवं कहने के अधिकारी हों। सतगुरु हमसू रीझि कर,कह्या एक प्रसंग,बरसा बादल प्रेम का भीजि गया सब अंग। 


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