किसान और लेखक के बीच का अन्तर

एक लेखक और किसान में ज्यादा अंतर नहीं होता है, नए सृजन की सम्भावनायें दोनों में हैं , यदि लेखक, अपनी लेखनी के जरिये लोगों में नये विचारों के बीज बोता है, तो किसान भी अपने हल से जमीन को जोतकर अपने फसलों की कथा लिखता है। फर्क सिर्फ इतना सा है कि, लेखक पढ़ा लिखा होता है, तो किसान अनपढ़,जाहिल और गँवार होता है, अब तो नए युग का किसान भी साक्षर होने लगा है। लेखक जहाँ अपने श्रम की पूरी कीमत पाता है, देर से ही सही, जबकि किसान का परिश्रम यदाकदा बेकार भी चला जाता है, लेकिन दोनों ही अपने अपने कर्म भूमि के तल पर विशेषज्ञ होते हैं। दोनों ही का कार्य पारमार्थिक होता है ,यदि लेखक अपने विचारों से लोगों में जागरण और उत्थान का भाव उत्पन्न करता है ,तो वहीं  किसान अपने श्रम से उत्पन्न की हुई फसल से लोगों की भूख मिटाता है। हैं तो दोनों परिश्रमी, दोनों ही कर्मठ हैं, दोनों में ज्वाला है, दोनों ऊर्जावान तो इतने हैं, कि दुसरों में ऊर्जा का संचार करते हैं, और समाज को जरुरत भी दोनों की है। एक लोगों की भूख को मिटाकर उनमें सोचने की क्षमता पैदा करता है, दूसरा उनकी सोच को दिशा देकर उनकी जीवनशैली में क्रांति की नयी पौध उगाता है.........धैर्य और इंतज़ार का माद्दा भी दोनो में समान है, त्याग की भावना भी दोनों में सामान ही होती है, कभी कभी लेखक को अपने विचारों की बलिवेदी पर शहीद होना पड़ता है, तो किसान को दूसरों की जरूरतों की पूर्ती करते हुए क़र्ज़ और फ़र्ज़ की वेदी पर अपने जीवन का परित्याग करना पड़ता है। ज़रुरत तो समाज को दोनों की है, फर्क सिर्फ इतना है, की लेखक अपनी रचनाओं से अमर हो जाता है और किसान रचनाओं में गुमनाम।

Comments

Popular posts from this blog

हिंदी साहित्य के धूमकेतु :फणीश्वर नाथ रेणु

भारतीय अर्थव्यवस्था का अर्धसत्य

धर्म एवं राजनीति:एक दूसरे के पूरक