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मेरे पितामह की वीरगति

वो रात बड़ी काली थी, बढ़ती रात की कालिमा के साथ उनकी वेदना भी बढ़ती जा रही थी। मरणपीड़ा की असहनीय और मर्मान्तक पीड़ा की झलक उनके चेहरे पर आती और चली जाती,इसी के साथ दर्द को पीने की उनकी कोशिशें भी असफल सिद्ध हो जातीं। उस अवस्था में भी उनकी आवाज़ में एक खनक थी, और वो पूरी तरह स्पष्ट थी। पिछले सत्रह दिनों से वे मृत्यु से लगातार युद्ध लड़ रहे थे,गजब के योद्धा थे वो, उनकी वीरता अब पराकाष्ठा पर थी। मौत से लड़ने का कौशल क्या होता है, पहली बार ये मैंने उनसे जाना,उनके इसी साहस से मैंने महसूस किया, कि मरना भी एक कला है।      आदमी सारा जीवन खर्च कर देता है अपनी मृत्यु कमाने में, कहीं मैंने ऐसा पढ़ा था,सारी ज़िन्दगी वो जैसा आचरण करता है जीवन के सार्थक अंतिम कुछ पल ही उसकी सार्थक परिणीति होते हैं। जैसा जिसका व्यव्हार, वैसी उसकी मृत्यु का परिणाम, जैसे मरने वाला यदि तामसी प्रवृत्ति का है तो,वो मरते समय बेहोश हो जाता है, क्यूंकि उसका सारा जीवन खुराफात करने में ही व्यर्थ हो जाता है और अंतिम पलों के एहसास से ही वो बेहोश हो जाता है। उनकी मृत्यु की घटना  भी उ...

किसान और लेखक के बीच का अन्तर

एक लेखक और किसान में ज्यादा अंतर नहीं होता है, नए सृजन की सम्भावनायें दोनों में हैं , यदि लेखक, अपनी लेखनी के जरिये लोगों में नये विचारों के बीज बोता है, तो किसान भी अपने हल से जमीन को जोतकर अपने फसलों की कथा लिखता है। फर्क सिर्फ इतना सा है कि, लेखक पढ़ा लिखा होता है, तो किसान अनपढ़,जाहिल और गँवार होता है, अब तो नए युग का किसान भी साक्षर होने लगा है। लेखक जहाँ अपने श्रम की पूरी कीमत पाता है, देर से ही सही, जबकि किसान का परिश्रम यदाकदा बेकार भी चला जाता है, लेकिन दोनों ही अपने अपने कर्म भूमि के तल पर विशेषज्ञ होते हैं। दोनों ही का कार्य पारमार्थिक होता है ,यदि लेखक अपने विचारों से लोगों में जागरण और उत्थान का भाव उत्पन्न करता है ,तो वहीं  किसान अपने श्रम से उत्पन्न की हुई फसल से लोगों की भूख मिटाता है। हैं तो दोनों परिश्रमी, दोनों ही कर्मठ हैं, दोनों में ज्वाला है, दोनों ऊर्जावान तो इतने हैं, कि दुसरों में ऊर्जा का संचार करते हैं, और समाज को जरुरत भी दोनों की है। एक लोगों की भूख को मिटाकर उनमें सोचने की क्षमता पैदा करता है, दूसरा उनकी सोच ...

अशुध्द कुआँ

लंच का समय। ...... खाने के बाद तो अक्सर गपबाजी होती ही रहती है। सब बारी बारी से अपना किस्सा सुना रहे थे, सभाजीत उस्ताद ने भी अपना एक किस्सा सुनाया, कहानी ऐसी थी, कि उनके रिश्तेदारों में उनके कोई फूफा लगते थे, जो राजगिरी  का काम करते थे, राजगिरी का मतलब तो सब जानते हैं, भाई, वही राजमिस्त्री का जो ईटों की जोड़ाई का काम करते हैं । किसी ब्राम्हण के यहाँ पर उनका काम लगा हुआ था, कुएं की मुंडेर बन रही थी। वो भी चुपचाप अपना काम कर रहे थे, तभी उस ब्राम्हण परिवार की एक नई नवेली बहू कुएं की मुंडेर के पास आकर खड़ी हो गयी, लम्बा सा घूँघट निकाले........  वे सारा सबब जानते थे कि, वो बहू  वहां क्यों  खड़ी थी ! फिर भी वो चुपचाप सिर झुकाये अपना काम करते रहे। दरअसल ,वे हरिजन थे और उस दुल्हन के दिमाग में बात आ गयी कि ,एक हरिजन की मौजूदगी में वह कुएं से पानी कैसे काढ़े,पानी अपवित्र जो हो जाता,काफी देर हो गयी, न तो वो कुछ बोल रही थी,और न ही वो वहां से हट रहे थे।        अचानक घर के किसी पुरुष  सदस्य की निगाह उस जगह पड़ी, तो उसने दुल्हन से वहां इतनी देर तक ख...

शम्बूक

रामराज्य के युग की कथा है, एक शूद्र अल्पविकसित ज्ञान के साथ तपस्या में लीन था, वह सिर लटका कर,पैरों को ऊपर डाल में फंसाये, एक वृक्ष पर तपस्यारत था, उसकी इस तपस्या से एक ब्राम्हण बालक मर गया, उस ब्राम्हण बालक का पिता उसकी मृत शरीर को लेकर राजा राम की राज्यसभा में पहुंचा और दहाड़ें मार कर रोने लगा। राजा राम ने उससे प्रश्न किया ," क्यों रो रहे हो?".... ब्राम्हण ने उत्तर दिया ," मेरा बालक मर गया,इसलिए रो रहा हूँ, और इस बालक की मृत्यु का कारण आप हो " राजा राम उसकी बात सुनकर स्तब्ध रह गए। उन्होंने उस ब्राम्हण से पूरा वृत्तांत जानना चाहा। उस ब्राम्हण ने उत्तर दिया,"आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है, उसकी तपस्या के फल स्वरुप मेरा बालक मर गया।" राजा राम ने उस शूद्र की तलाश शुरू कर दी,और उस जगह पहुँच गए जहाँ वह शूद्र तपस्यारत था।      राजा राम ने पूछा, " क्या कर रहे हो? ''  शम्बूक ने उत्तर दिया ," राजा राम आपका कल्याण हो! मैं शूद्र हूँ, और सदेह स्वर्ग जाना चाहता हूँ ,अर्थात अपने शरीर के रहते अपना स्वरुप जानना चाहता हूँ ,इसलिए यह प्रयोजन कर...

ब्राम्हण,गाय,और केतकी की कथा

कबीर पंथ की एक पुस्तक का वृत्तांत जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि,इतना बड़ा सत्य आज भी हिन्दुओं द्वारा अनदेखा क्यों किया गया था, कथा बड़ी पौराणिक लगती है,पर है रोचक और मज़ेदार,उस पुस्तक के अनुसार यदि मनन किया जाये तो पता चलता है कि,हिंदू वैदिक सभ्यता का इतना नुकसान क्यों हुआ,ये नुकसान इतना व्यापक था जितना बाहरी आक्रमणकारियों ने हिन्दू सभ्यता को नुकसान नहीं पहुँचाया उससे ज्यादा ब्राह्मणों ने हिंदू सभ्यता का नाश कर दिया,इस वर्ग ने अपने निजी लाभ के लिए धर्म के पौराणिक तथ्यों के अर्थ का अनर्थ करके उसे तहस नहस करके रख दिया,यही सत्य है जिसे पूरे हिंदू जनभावना को समझना चाहिए।          कथा इस प्रकार है,जब समुद्रमंथन हुआ तो उस मंथन में और चीज़ों के साथ निकले वेद,तेज और हलाहल विष,जो क्रमशः ब्रम्हा,विष्णु और महेश ने आपस में बाँट ली,ब्रम्हा को वेद,विष्णु को तेज यानि अमृत और महेश को हलाहल प्राप्त हुआ वे उन वस्तुओं को लेकर अपनी माँ अष्टांगी के पास गए तो माँ ने तीनो को उन चीज़ों को अपने अपने पास रखने को कहा,साथ ही फिर से समुद्र मथने का आदेश दिया,जिसमे अष्टांगी ने अपन...

मृत्यु:जीवन की नयी गाथा

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वो कमरा आश्रम के पिछले हिस्से की गली में अवस्थित था,वो आश्रम के सभी कमरों से ज्यादा गुलज़ार और रौनक से लबरेज रहा करता था, उसमे जीवनोपयोगी सारी वस्तुएं मौजूद रहा करती थीं ,जो आश्रम के अन्य कमरों में तकरीबन कम ही पायी जाती थीं। हीटर,गीजर भंडारी के आले में सजी हुयी गिलासें,थालियाँ,प्रसाद का डिब्बा,दवाइओं के डिब्बे,तम्बाकू की डिबिया,कटोरे अादि वस्तुएं अपनी अपनी जगह पर करीने से रखी होती थीं. किसी भी वस्तु का बेतरतीब या मनमाने ढंग से रखा जाना उस कमरे के स्वामी को बिलकुल नागवार लगता था। जो व्यक्ति उस आज्ञा का उल्लंघन करता था वो गालियां सुनता था। एक ओर पलंग पर तरतीब से गद्दा,गद्दे पर कम्बल,चादर इत्यादि ढंग से फैलाये गए होते थे,सिरहाने पर तकिया जिसके गिलाफों में भक्तों और अनुयायियों द्वारा चढ़ाई गयी निधि,कभी तकिये के नीचे या उसके आस पास अस्त व्यस्त रूप से रखे गए रूपये अक्सर नुमायां होते थे। इन रुपयों के प्रति उस कमरे के स्वामी बेपरवाह रहा करते थे ,खाने पीने की वस्तुएं जिसमे नमकीन ,बिस्कुट ,भुना चना ,भुनी हुयी मूँगफली ,साबुन ,तेल इत्यादि चीज़ें बड़े बड़े थैलों में डालकर पलंग के नीचे या ऊपर टांड पर र...

दीपावली एवं हिंदू नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें

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आप सभी पाठकों को,समग्र विश्व को दीपावली एवं हिंदू नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें और अभिनन्दन के साथ मेरे प्रणाम स्वीकार हों।  महानगरों एवं शहरों की दिवाली ग्रामीण परिवेश की दीपावली से सर्वथा भिन्न एवं व्यावहारिक सी लगती है। गांव देहात की दीपावली मनाने का सिलसिला शुरू होता है दीपदान से, इस दिन सारी सम्पत्ति,उपयोगी हों या अनुपयोगी,ज़रूरी हो या व्यर्थ सबकी समान इज़्ज़त होती है,चाहे घर हो या खेत सब जगह दीप प्रज्वलित करके सम्मान प्रदर्शित किया जाता है,यहाँ तक कि,घूर पर जहाँ कूड़ा करकट फेंका जाता है वहां भी दीपक प्रज्वलित करने की परंपरा होती है।  दीप प्रज्वलित करने की प्रथा प्रतीकात्मक होती है,यह प्रतीक है उस विशाल घने फैले हुए अँधेरे के प्रति एक दीप की प्रकाश को फ़ैलाने की कोशिश का,जो आम आदमी के जीवन में प्रतिदिन नयी नयी चुनौतियों एवं कठिनाईयों के ,जो कि, अँधेरे का प्रतीक हैं , अपनी मेधा और ज्ञान के दीपक के प्रकाश की  शक्ति से दूर करने का एक प्रयास है।  आप भी अपनी अंधकार एवं संकटरूपी चुनौतियों का,नित नए दीपक जला कर उनके अँधेरों को दूर करने का प्रयास...