मेरे पितामह की वीरगति
वो रात बड़ी काली थी, बढ़ती रात की कालिमा के साथ उनकी वेदना भी बढ़ती जा रही थी। मरणपीड़ा की असहनीय और मर्मान्तक पीड़ा की झलक उनके चेहरे पर आती और चली जाती,इसी के साथ दर्द को पीने की उनकी कोशिशें भी असफल सिद्ध हो जातीं। उस अवस्था में भी उनकी आवाज़ में एक खनक थी, और वो पूरी तरह स्पष्ट थी। पिछले सत्रह दिनों से वे मृत्यु से लगातार युद्ध लड़ रहे थे,गजब के योद्धा थे वो, उनकी वीरता अब पराकाष्ठा पर थी। मौत से लड़ने का कौशल क्या होता है, पहली बार ये मैंने उनसे जाना,उनके इसी साहस से मैंने महसूस किया, कि मरना भी एक कला है। आदमी सारा जीवन खर्च कर देता है अपनी मृत्यु कमाने में, कहीं मैंने ऐसा पढ़ा था,सारी ज़िन्दगी वो जैसा आचरण करता है जीवन के सार्थक अंतिम कुछ पल ही उसकी सार्थक परिणीति होते हैं। जैसा जिसका व्यव्हार, वैसी उसकी मृत्यु का परिणाम, जैसे मरने वाला यदि तामसी प्रवृत्ति का है तो,वो मरते समय बेहोश हो जाता है, क्यूंकि उसका सारा जीवन खुराफात करने में ही व्यर्थ हो जाता है और अंतिम पलों के एहसास से ही वो बेहोश हो जाता है। उनकी मृत्यु की घटना भी उ...