धर्म एवं राजनीति:एक दूसरे के पूरक
धर्म एक दीर्धकालिक राजनीति है ,और राजनीति अल्पकालिक धर्म है इस सिद्धांत को प्रधानमंत्री नरेन्द्रभाई मोदी ने बखूबी आत्मसात कर लिया है,स्वच्छता एवं शुचिता सम्बन्धी अभियान चलाकर भारतीय जनमानस के अंतर्मन में एक नयी स्वच्छ सामाजिक विचारधारा,स्वच्छ परिवेश ,एवं दृढ़ भारतीय राजनैतिक इच्छाशक्ति की पहल की है,यह तो खैर उन्होंने अपने तरीके से समाज को एक नया रूप देने की कोशिश की है,जो वाकई प्रशंसनीय पहल है,प्रशंसा के पात्र वो इसलिए भी हैं,कि महात्मा गाँधी एवं सरदार वल्लभभाई पटेल ने आधुनिक भारत का जो सपना देखा था, उसे वो साकार करने का प्रयत्न कर रहे हैं,पर सवा सौ करोड़ आबादी वाले इस विशाल भारतीय जनमानस की इन सारी उपयोगिताओं पर अब तक निगाह क्यों नहीं पड़ी या उन्होंने इन बातों को अब तक नज़रअंदाज़ क्यों किया ये भी एक यक्षप्रश्न उठ रहा है,क्या हमारा अपना कर्त्तव्य निभाना भी टालमटोल वाली प्रवृति के बलि चढ़ गया,या चलता है वाली संस्कृति इस कर्त्तव्य को निभाने की राह में रोड़ा बन गई है,आज़ादी के इतने सालों के बीतने के बाद भी हम अपने कर्तव्यों के प्रति विमुख क्यों हैं,हम क्यों हर ज़िम्मेदारी को सरकार पर छोड़ देते हैं, या बीते कुछ दशकों के राजनितिक नेतृत्व ने हमें लापरवाह बना डाला ,क्यों हम यह नहीं सोचते कि स्वच्छ सरकार भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है,यदि हम पैसे कमा रहे हैं तो कर अदा करना हमारा फ़र्ज़ है,स्वच्छ परिवेश,स्वच्छ समाज,स्वच्छ संस्कार क्या हमने अपनी पाठशालाओं ,स्कूलों ,कॉलेजों में नहीं पढ़ी हैं,ऐसा नहीं है फिर इन सारी बातों को हम क्यूँकर नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि,हमारी सरकार को हमारी ज़िम्मेदारियों को सिखाना पड़ रहा है,जबकि हम खुद भी उसी समाज का घटक हैं,हम तो उसकी हर कमी, हर नाकामी के प्रति शिकायती लहजा अपनाते हैं ,पर उन चीज़ों को सुधारने के बजाय उनको हम टी.वी पर आनेवाले हेडलाइंस के लिए छोड़ देते हैं, क्यूं ऐसा लगता है की औपनिवेशक पराधीनता आज भी हम पर हावी है,यहाँ मैं अभिजात्य एवं कुलीन वर्ग की बात नहीं कर रहा न ही उच्च मध्यमवर्गीय वर्ग की क्यूंकि वे देश के विकास में योगदान देते ही हैं ,मैं बात कर रहा हूँ आम आदमी कहलाकर अपने आपको ख़ास समझनेवाले निम्न या निम्न मध्यमवर्गीय समाज के लोंगो की,अब फिर हमें जागृत करने के लिए किसी युगपुरुष का इंतज़ार न करके,अपने आपको जगाना होगा के हम समय रहते चेत लें नहीं तो हमें हमारी ही सामाजिक एवं जातीय व्यवस्था के ठेकेदारों द्वारा ठग लिया जाएगा ,हमें समझना होगा कि वैश्विक व्यवस्था ,उसके नियम ,उसके अर्थ सबकुछ बदल रहे हैं,इन हो रहे बदलावों पर यदि हम ध्यान नहीं देंगे तो हम सुधारों की दौड़ में पीछे छूट जायेंगे और दुनिया आगे निकल जायेगी,यदि हम अपनी बेटियों को शिक्षित करें, सही मायनो में,तो बदलाव संभव है,हम यदि वसुधैव कुटुम्बकम वाली सोच को अपनाते हैं तो बदलाव संभव है,आखिरकार परिवर्तन तो जीवन का अनंत क्रम है ,संभव है कि हमारी आस्था धर्म केंद्रित हो इससे राजनीति की परिभाषा ,उसके प्रति हमारी ज़िम्मेदारी तो नहीं बदल जाती है ,राजनीती के प्रति धर्म की हमारी प्रसंगिकताएँ हमें उसके प्रति हमारे उत्तरदयित्व का बोध कराती रहें,ये एहसास ज़रूरी है,ऐसा करके हम अपनी आनेवाली पीढ़ियों के लिए निश्चित रूप से एक अलग ही रूप के विकसित भारत का खाका तैयार कर सकते हैं जिसमे उन्हें ज़िन्दगी जीने में कदरन आसानी होगी
It's nice
ReplyDeletewell thank you, rahul
ReplyDeleteyes
ReplyDeletenice
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