भारतीय अर्थव्यवस्था का अर्धसत्य



भारतीय संविधान का मूल सिद्धांत,नागरिकों द्वारा,नागरिकों के हित में,नागरिकों का, संविधान के रूप में प्रतिपादित संविधान है। इस संविधान के तहत हर नागरिक को समान सुविधाएं,समान व्यवस्था,समान दृष्टिकोण एवं समान स्वतंत्रता हासिल है। फिर भी,भारतीय समाज वर्गों के रूप में बंट गया हैं,जिसमे हर वर्ग की अलग अलग सुविधाएं,अलगअलग व्यवस्था,अलग अलग दृष्टिकोण का माहौल व्याप्त हो गया है।आज जब भारत तेजी से शिक्षा,रक्षा,विज्ञान,चिकित्सा,अनुसन्धान,एवं तकनीक के क्षेत्र में एक नया सोपान हासिल कर रहा है एवं एक मज़बूत अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर है ,ऐसे समय में भारतीय कृषि जगत,जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है,उपेक्षित क्यों महसूस कर रही है। भारतीय किसान की दशा बद से बदतर हालत में क्यों होते जा रही है।वो किसान जो अन्नदाता के रूप में जाना जाता है,उसकी खुद की हालत कुपोषित जैसी क्यों है,क्यों हम उसे पलायित होने से रोक नहीं पा रहे,उसकी आत्महत्याओं का दौर क्यूँ थम नहीं पा रहा है। ये वर्ग जिसके कंधो पर देश की मूलभूत ज़िम्मेदारी भोजन संबंधी प्रबंधन की है,वही वर्ग भोजन की थाली से वंचित होता जा रहा है,हमारा देश विश्व में खाद्य एवं रसद सम्बन्धी निर्यात में दूसरे नम्बर पर आता है,उसी देश का नम्बर कुपोषण सम्बन्धी सूचकांक में सौवें स्थान पर है,और हमारी ही आबादी का साठ से पैसठ प्रतिशत हिस्सा जो इस अति आवश्यक ज़िम्मेदारी का प्रदाता है वो कुपोषित है,तो यह तथ्य कहीं न कहीं हमारी कमज़ोरियों को उजागर कर रहा है। कहीं ऐसा न हो कि सुधारों की रफ़्तार में हम पिछड़ जाएँ क्यूंकि एक ऐसा राष्ट्र जिसका इतना बड़ा वर्ग कुपोषित हो,उसकी आनेवाली नस्लें कमज़ोर ही पैदा होंगी,भूखे पेट विकास की बात बेमानी लगती है,वजह ये है  कि,जो वर्ग अपनी दो जून की रोटी का जुगाड़ करने में असमर्थ है वो अपनी आनेवाली पीढ़ियों को शिक्षा क्या दे पायेगा ,उनको मज़बूत क्या कर पायेगा ,उन्हें एक बेहतर भविष्य क्या दे पायेगा । एक नाराज,एक असन्तुष्ट  राष्ट्र,एक मज़बूत अर्थतंत्र कैसे बन पायेगा,ये भी एक गंभीर प्रश्न है,हम दावा करते है, की हम एक मज़बूत उभरती  हुई  विकासशील अर्थव्यवस्था हैं, तब जबकि एक बड़ा हिस्सा भूख से बेहाल है,उस विकास के  दावे की क्या प्रसंगिकताएँ हैं। कहीं न कहीं ये दावे यह उस मज़बूती से उभरतीअर्थव्यवस्था का मुखौटा भर तो साबित नहीं हो रहे ,जबकि हकीकत कुछ और है। हम मात्र एक बड़ा बाजार हो सकते हैं क्यूंकि हमारी आबादी विशाल है,उस विशाल आबादी के क्या अर्थ रह जाते हैं,जब वही भूखी रहे।हम दम भरते हैं की हमारी ताकत हमारी युवाशक्ति है,तो उस युवाशक्ति की,जो खुद कमजोर हो,कुपोषित हो,वही हमारी ताकत कैसे बनेगी,हमें हमारी खाद्य सम्बन्धी प्रणाली को सुधारना होगा,उसका अवांछित व्यय रोकना होगा,भोजन की थालियों में भोजन छोड़ने की आदतों को बदलना होगा,न जाने कितना अनाज भण्डारण की दुर्व्यवस्था के कारण सड़ जाता है,उससे ज्यादा अनाज तो चूहे खा जाते हैं,हमारे सरकारी तंत्र को उसके उचित भंडारण की व्यवस्था को सुधारना होगा,इस तथ्य को हमारी सरकारी व्यवस्था को समझना ही होगा नहीं तो, ये जो साल के ३६५ दिनों में मात्रा २०० दिन काम करनेवाले,सरकारी व्यवस्था का उपभोग करनेवाले,अपने बच्चों की शिक्षा का एक बेहतर भविष्य की संकल्पना पालनेवाले,उसकी पेंशन,उसके भत्तों,उसकी चिकित्सा,उसके उपभोग का आनन्द लेने वाले सरकारी तंत्र के कुलीन वर्ग के लिए सिरदर्द का बायस बन सकता है,ऐसा भी संभव है कि,विकास सम्बन्धी योजनाएं स्थगित न करनी पड़ें,तो समय रहते इस समस्या का समाधान ज़रूरी है। आशा है,कि भारतीय जनमानस का कुलीन वर्ग जो विकास की अवधारणा का प्रतिनिधित्व करता है,इस मामले में अपना योगदान करके उन कृषकों को धन कमाने का जरिया न बनाते हुए उनकी सहायता में आगे आएगा। मेरा यह लेख केवल प्रसिद्धि का माध्यम न होकर, उन भारतीय कृषकों की समस्याओं के समाधान का ईमानदार माध्यम बने,ऐसी मेरी कामना है।

भारतीय अर्थव्यवस्था का अर्धसत्य

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